Thoughts of Mahatma Gandhi

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  • जो मनुष्य अपनापनकी रक्षा करना चाहता है उसे सब आर्थिक वस्तु गंवाने की तयारी रखनी है

    दिसम्बर १४, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४७९
  • जो धर्म इस लोककी बातको छोडता है और परलोककी ही बात करता है वह धर्म नहि हो सकता है

    दिसम्बर १५, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४७९
  • जो जबरन गरीब है वह स्वेच्छासे गरीब नहीं बन सकता है

    दिसम्बर १६, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४८०
  • पवित्रता परदेमें नहीं रहती उसे रक्षा ईश्वरकी ही चाहिये

    दिसम्बर १७, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४८०
  • धर्म पालनमें से जो अधिकार निकलता है वही स्थिर रहता है

    दिसम्बर १८, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४८०
  • [जब तक ] सोना और हीरा जमीनकी आंतोंमें पड़ा है तब तक किसीके उपयोग का नहीं है मनुष्यकी महेनत उसे जमीनमें से निकालती है और सोना हीरा बनाती है इस द्रष्टिसे उसे बनाने वाला मजदुर है

    दिसम्बर १९, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४८०
  • जैसे मुझे खाने पहन्नेका हक़ है उसी तरह मुझे अपना कम अपने ढ़ंगसे करने का हक्क है वही स्वराज है

    दिसम्बर २०, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४८०
  • किसीके विचार जाननेके की इच्छा न रखना, न उसपर अपना अभिप्राय बनाना अपना विचार स्वतंत्र रूपसे करना निर्भयताका लक्षण है

    दिसम्बर २१, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४८०
  • जब हमारा रक्षक और साथी परमेश्वर है तो कितना भी तुफान ही, कितना भी अन्धकार हो हम क्यों और किससे डरें ?

    दिसम्बर २२, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४८०
  • संपूर्ण अहिंसामें द्वेषका संपूर्ण अभाव होता है

    दिसम्बर २३, १९४५, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८२, पृ. ४८०
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