Thoughts of Mahatma Gandhi

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  • सादगी बनाने से नहीं बनती, स्वाभावमें होनी चाहीये ।

    सेवाग्राम मंगल, १३ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९०
  • मनुष्य बहारसे ढुंढक्र अपनेको बढ़ा नहीं सकता है बढ़ने का स्थान भीतर है ।

    सेवाग्राम बुध, १४ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९०
  • शुद्ध प्रेम सब थकान दूर करता है ।

    सेवाग्राम गुरु, १५ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९०
  • आदमी हेवानका कम करे और आदमी होने का दावा कैसे करे?

    सेवाग्राम शुक्र, १६ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९१
  • जब बुद्धि और श्रद्धाके बिचमें भेद है तब श्रद्धाको मान देना अच्छा है ।

    सेवाग्राम शनि, १७ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९१
  • लोगकी निंदासे जो डरता है वह महत्वका काम नहीं कर सकेगा ।

    सेवाग्राम रवि, १८ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९१
  • अपनी २ जगहपर सब उचित है, जगहके बाहर अनुचित ।

    सेवाग्राम सोम, १९ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९१
  • अतिशयोक्तिकी जालमें से आदमी छुट नहीं सकता है ऐसा प्रतीत होता है ।

    सेवाग्राम मंगल, २० अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९१
  • आग्रह सत् होता है असत् भी-असत्से नहीं छूटता, सत् को नहीं छुता ।

    सेवाग्राम बुध, २१ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९१
  • बगैर समझके न कुछ करना न पढना ।

    सेवाग्राम गुरु, २२ अगस्त १९४६ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड ८५, पृ. ४९१
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